लाहौर के उस पहले जिले के दो परगना में पहुँचे रेशम गली के दूजे कूचे के चौथे मकां में पहुँचे और कहते हैं जिसको दूजा मुल्क उस पाकिस्तां में पहुँचे लिखता हूँ ख़त में हिन्दोस्तां से पहलू-ए हुसना पहुँचे ओ हुसना मैं तो हूँ बैठा ओ हुसना मेरी यादों पुरानी में खोया मैं तो हूँ बैठा ओ हुसना मेरी यादों पुरानी में खोया पल-पल को गिनता पल-पल को चुनता बीती कहानी में खोया पत्ते जब झड़ते हिन्दोस्तां में यादें तुम्हारी ये बोलें होता उजाला हिन्दोस्तां में बातें तुम्हारी ये बोलें ओ हुसना मेरी ये तो बता दो होता है, ऐसा क्या उस गुलिस्तां में रहती हो नन्हीं कबूतर सी गुमसुम जहाँ ओ हुसना पत्ते क्या झड़ते हैं पाकिस्तां में वैसे ही जैसे झड़ते यहाँ ओ हुसना होता उजाला क्या वैसा ही है जैसा होता हिन्दोस्तां यहाँ ओ हुसना वो हीरों के रांझे के नगमें मुझको अब तक आ आके सताएं वो बुल्ले शाह की तकरीरों के झीने झीने साये वो ईद की ईदी लम्बी नमाजें सेंवैय्यों की झालर वो दिवाली के दीये संग में बैसाखी के बादल होली की वो लकड़ी जिनमें संग-संग आंच लगाई लोहड़ी का वो धुआं जिसमें धड़कन है सुलगाई ओ हुसना मेरी ये तो बता दो लोहड़ी का धुंआ क्या अब भी निकलता है जैसा निकलता था उस दौर में हाँ वहाँ ओ हुसना (क्यों एक गुलसितां ये) (बर्बाद हो रहा है) (एक रंग स्याह काला) (इजाद हो रहा है) (क्यों एक गुलसितां ये) (बर्बाद हो रहा है) (एक रंग स्याह काला) (इजाद हो रहा है) (क्यों एक गुलसितां ये) (बर्बाद हो रहा है) (एक रंग स्याह काला) (इजाद हो रहा है) ये हीरों के रांझों के नगमे क्या अब भी, सुने जाते है हाँ वहाँ ओ हुसना और रोता है रातों में पाकिस्तां क्या वैसे ही जैसे हिन्दोस्तां ओ हुसना